लेखक: अमृतांज इंदीवर
एक समय की बात है, जब गांवों और जंगलों में पक्षियों की मधुर आवाज़ें हर सुबह और शाम को गूंजा करती थीं। कोयल की कूक, तोते की चहचहाहट, कौवे की कांव-कांव, और मैना की मीठी बोली से पूरा वातावरण गुलज़ार हो जाता था। लेकिन अब ये आवाज़ें धीरे-धीरे मंद पड़ती जा रही हैं। पेड़ों की डालियां सूनी हो गई हैं, और आसमान में पक्षियों के झुंड कम ही दिखाई देते हैं। एक दिन, जंगल के बीचोंबीच एक पुराने बरगद के पेड़ पर कौवे, तोता, मैना, कोयल, और गिद्ध इकट्ठे हुए। वे सभी चिंतित थे। उनके बीच एक संवाद शुरू हुआ।
कौवा (कांव-कांव करते हुए): “भाइयों और बहनों, क्या आपने गौर किया है कि हमारी संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है? पहले जहां हमारे झुंड आसमान में छा जाते थे, अब तो हम गिने-चुने रह गए हैं।”
तोता (चहचहाते हुए): “हां, कौवा भाई, तुम सही कह रहे हो। मैंने भी देखा है कि हमारे पेड़ कटते जा रहे हैं। हमारे घोंसले तोड़ दिए जाते हैं, और हमारे बच्चे सुरक्षित नहीं हैं।”
मैना (दुखी स्वर में): “और सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे लिए खाना भी मुश्किल हो गया है। खेतों में कीटनाशक डाले जाते हैं, जिससे हमारे भोजन के कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं। हम भूखे रह जाते हैं।”
कोयल (मधुर आवाज़ में): “मैं तो अब गाना भी भूल सी गई हूं। पहले जब मैं कूकती थी, तो लोग मेरी आवाज़ सुनकर खुश हो जाते थे। अब तो मेरी आवाज़ किसी को सुनाई ही नहीं देती।”
गिद्ध (गंभीर स्वर में): “मैं तो बिल्कुल ही परेशान हूं। हमारी प्रजाति तो विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है। पहले जहां हमें मृत जानवरों का मांस आसानी से मिल जाता था, अब तो वह भी दूषित हो गया है। दवाइयों और रसायनों से भरा हुआ।”
तभी वहां एक सियार आ धमका। वह चालाकी से मुस्कुराते हुए बोला, “अरे भाईयों, तुम सब इतने चिंतित क्यों हो? मैं तो यहां जंगल में आराम से रह रहा हूं। तुम्हें भी मेरी तरह समझदार बनना चाहिए।”
कौवा (गुस्से में): “अरे सियार, तुम्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम तो हर हाल में जीवित रह सकते हो। लेकिन हम पक्षियों के लिए तो यह जंगल ही हमारा घर है। अगर यह नहीं रहेगा, तो हम कहां जाएंगे?”
सियार (हंसते हुए): “तुम सब बहुत भावुक हो। दुनिया बदल रही है, और तुम्हें भी बदलना होगा। वैसे भी, मनुष्यों ने तो हमारे लिए कुछ अभयारण्य बना दिए हैं। वहां जाकर रहो।”
मैना (निराश स्वर में): “अभयारण्य? वहां तो हमें केज में बंद कर दिया जाएगा। हम आज़ाद पक्षी हैं, हमें पिंजरे में रहना पसंद नहीं है।” तभी वहां एक साधु आए। वे लंबे बाल और दाढ़ी वाले थे, और उनके चेहरे पर शांति और ज्ञान की छाप थी। उन्होंने पक्षियों और सियार की बातें सुनीं और मुस्कुराए।
साधु (शांत स्वर में): “बच्चों, तुम सबकी चिंता सही है। प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है, और इसका सबसे ज्यादा असर तुम्हारे जैसे निरीह प्राणियों पर पड़ रहा है। लेकिन याद रखो, प्रकृति हमेशा से शक्तिशाली रही है। वह अपना संतुलन खुद बना लेती है।”
कौवा (उत्सुकता से): “लेकिन महात्मा जी, हम क्या करें? हमारी संख्या लगातार कम हो रही है। हमें बचाने के लिए कोई उपाय बताइए।”
साधु (गंभीरता से): “तुम्हें अपनी आवाज़ उठानी होगी। मनुष्यों को समझाना होगा कि तुम्हारे बिना प्रकृति अधूरी है। उन्हें यह बताना होगा कि तुम्हारे संरक्षण के बिना उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा।”
तोता (उत्साहित होकर): “लेकिन हम कैसे? हम तो केवल पक्षी हैं। हमारी आवाज़ कोई नहीं सुनेगा।”
साधु (मुस्कुराते हुए): “तुम्हारी आवाज़ ही तुम्हारी ताकत है। तुम्हारी मधुर ध्वनियों से ही तो प्रकृति जीवंत होती है। मनुष्यों को यह याद दिलाओ कि तुम्हारे बिना उनकी सुबह अधूरी है।”
कोयल (आशा से भरकर): “तो क्या हम फिर से अपनी मधुर आवाज़ों से प्रकृति को गुलज़ार कर सकते हैं?”
साधु (हां में सिर हिलाते हुए): “हां, बच्चों। लेकिन इसके लिए तुम्हें एकजुट होना होगा। सभी पक्षियों को मिलकर प्रयास करना होगा। और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि जब तक प्रकृति है, तुम्हारी आवाज़ें गूंजती रहेंगी।”
साधु की बातें सुनकर सभी पक्षियों के चेहरे पर आशा की किरण दिखाई दी। उन्होंने निर्णय लिया कि वे सभी मिलकर प्रकृति और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयास करेंगे।
कहानी का सार:
यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि प्रकृति और पक्षियों के बिना हमारा जीवन अधूरा है। हमें उनके संरक्षण के लिए सचेत होना चाहिए और उनकी मधुर आवाज़ों को फिर से गूंजने का मौका देना चाहिए। प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करना होगा।